ज़ख्म भी गहरे होते थे, कपड़े भी मैले होते थे।
दुनिया दो पहियों में नापता था, क्योंकि साथ अपनों के चेहरे होते थे ।

ज़ेब हल्की होती थी, फिर भी खुशियाँ खरीद लिया करता था।
रास्ते में गढ्ढे होते थे,फिर भी गिर के चल लिया करता था।

उम्मीद का दामन था, सपनों का आँगन था।
अपनों की आहट थी, कहाँ कोई कड़वाहट थी।

समय की कमी ना थी, आँखों में नमी ना थी।
स्वर्ग सा लगता था इतवार, जन्मदिन पर तोहफों की कमी भी ना थी।

लोगों का घर में आना, हर छोटी बात पर गले लग जाना।
त्योहारों में सबके साथ गप्पें लड़ाना, गिनती के पटाखों को हफ्ते भर चलाना।

हँसते खेलते स्कूल जाना, भरी भोर में माँ का टिफिन बनाना।
इम्तिहान में मुझे रात भर पढ़ाना, गन्दे मार्क्स आने पर बापू से हस्ताक्षर कराना।

हर शाम वहाँ आने वाले कल की तलाश थी,
लाखों की भीड़ में भी अपनी वहाँ कुछ अलग ही बात थी।

छोटा सा शहर और वही अपना आशियाना था,
यही मेरा जीवन और मैं इसी का दीवाना था।

#जीवन का निर्णायक मोड़

पैसों के मोल ने मुझे तोड़ दिया ,
एक अनजान शहर में मुझे अकेला छोड़ दिया।

जेब भरी है मेरी फिर भी खुशियाँ मुझसे नाराज़ हैं,
भीड़ तो है यहाँ बस किसी अपने की तलाश है।

यहाँ लोग अपनों से बचते हैं ,
पता नहीं यहाँ गाड़ी और घर फिर किसके लिए सजते हैं।

हर शाम यहाँ सिर्फ शोर होता है ,
मुझे नहीं लगता कि यहाँ कभी भोर होता है।

मेरे शहर में अफवाह थी कि बड़े शहर में खुशियों का राज होता है ,
मुझे तो यहाँ सिर्फ दर्द का एहसास होता है ।

शुकून, शांति, अपनापन  ये शब्द नहीं हैं यहाँ के ,
फँस गया हूँ दलदल में कोई निकाल ले मुझे यहाँ से।

कवि शैलेश सिंह राजपूत

One thought on “Poem: मेरे निशां है कहाँ”
  1. कविता पढ़कर लगा शायद ये हम सब के जीवन के करीब है

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